



रांंची: आज के दौर में हम नक्सलवाद, उग्रवाद, माओवाद,ये शब्द हर दिन रेडियो, मोबाइल पर सुनते और अखबार के पन्नों पर पढ़ते हैं. आए दिन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं. आतंक के इस रुप से लड़ते ना जाने कितने ही जवान शहीद हुए हैं, लाखों आम लोगों की जान गई है. वहीं लाल आतंक के साथी भी ढेर किये गए हैं. आखिर क्या है इनकी मंशा, कहां से हुई थी शुरुआत.
क्या है नक्सलवाद ?
नक्सलवाद की कहानी शुरू करने से पहले नक्सल आंदोलन की पृष्ठभूमि के बारे में जानना जरूरी है. 15 अगस्त 1947 भारत आजाद मुल्क बना. आजादी के बाद देश ने लगातार तरक्की की लेकिन इंडिया और भारत की एक लकीर खींचती गई. एक तरफ विकास की चकाचौंध दूसरी तरफ पिछड़ेपन का अंधकार. रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार सम्बन्धी बुनयादी सुविधाओं का ना पहुंच पाने की वजह से जनंसख्या का एक बड़ा तबका सरकार के विरुद्ध होते हुए बागी होने लगा. एक तरफ भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू विकास की लहर को आगे बढ़ने के लिए अग्रसर थे तो वहीँ दूसरी तरफ बुनियादी सुविधाओं के अभाव, चरमराई सरकारी व्यस्था के बिच जमींदारों द्वारा छोटे किसानों का शोषण, उनके अधिकारों का हनन होने के वजह से विरोध के स्वर उठने लगे. इसका सीधा नतीजा लोगों की सरकारी तंत्र की व्यवस्था में विफलता और सरकार से उनका उठता विश्वास, सरकार के खिलाफ नाराजगी के रूप में उभर कर आया. व्यवस्था के खिलाफ अपने अधिकारों की जंग में ऐसे लोगों ने हिंसा का रास्ता चुना और उनकी इस हिंसा ने नक्सलवाद का रूप अख्तियार कर लिया.
कहां से हुई नक्सलवाद का शुरुआत ?
सरकार के खिलाफ शुरू हुए किसानों के विद्रोही आंदोलन से ही नक्सलवाद की शुरुआत हुई. पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में भी विद्रोह का बीज पनप रहा था. यह बात वर्ष 1967 की है जब बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार थी,उसी वक्त नक्सलबाड़ी में जमींदार और किसानों के बीच जमीन को लेकर हुई झड़प में पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई. जिसके बाद से ही आंदोलन उग्र हो गया. किसानों ने हथियार उठा लिये खुद ही फैसले करने लगे. उनका भारतीय लोकतंत्र में जरा भी भरोसा नहीं रहा. भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज नक्सलबाड़ी से ही उठी थी. आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि ‘जमीन उसी को जो उस पर खेती करें’.
किसने की थी इसकी शुरुआत ?
चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में गांव के किसानों ने जमींदारों और सरकार के विरुद्ध हथियारबंद आंदोलन की शुरुआत कर दी. इस सशत्र आंदोलन का नेतृत्व कानू सान्याल और जंगल संथाल ने किया जबकि चारु मजूमदार प्रबुद्ध मंडल का नेतृत्व करते रहे थें और अपनी विचारधारा का प्रचार प्रसार जोरो शोरो से जारी रखा. नक्सलबाड़ी से निकले इस आंदोलन के बाद ही इस आंदोलन से जुड़े लोगों को ‘नक्सली’ कहा जाने लगा. उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार हैं.
कौन थे चारु मजूमदार और कानू सान्याल ?
चारु मजूमदार, कानू सान्याल पहले कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य थे. जो एक दूसरे से 1962 में जेल में मिले थे. पर हथियार उठाते ही उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के बीच ही अपना एक संगठन तैयार कर लिया. जो छोटे किसानों पर हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा होने वाला एक संगठन था. नए संगठन के नियम कानूनों को लिखने की जिम्मेदारी चारु मजूमदार के पास ही थी. जिसके बाद 1969 में चारु मजूमदार को सिद्धांतो को मद्देनजर में रखते हुए सीपीआई (ML) का पहला महासचिव बनाया गया. वैसे नक्सल आंदोलन की शुरुआत कानू सान्याल ने ही किया था. कुछ माओवादी कम्युनिस्टों ने गुरिल्ला युद्ध के जरिये राज्य को अस्थिर करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया.
माओ जेडोंग का प्रभाव
आंदोलन 70 के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था. भारी संख्या में युवा इस आंदोलन में जुड़ने लगे थे. किसानों का जमींदारों द्वारा किया जाने वाले शोषण, सरकार की व्यवस्था के खिलाफ उनकी लड़ाई में उस वक्त के चीनी चेयरमैन और तानाशाह माओ जेडोंग के सिद्धांतो से प्रभावित होकर हिंसा की नीति का प्रयोग किया गया. माओ जेडोंग ने नक्सलियों को अवैध तरीके से हथियार भी उपलब्ध कराये. माओ के नीतियों से प्रभावित होने की वजह से नक्सलियों को ‘माओवादी’ भी कहा जाने लगा.
क्यों अलग हुई चारु और कानू की राहें ?
हालांकि आगे चलकर कानू सान्याल और चारु मजूमदार के बीच वैचारिक मतभेद बढ़ गए, और दोनों ने अपनी राहें अलग कर ली साथ ही साथ उन्होंने अपनी अलग पार्टी भी बना ली. चारु मजूमदार को 16 जुलाई 1972 को उनके खुफिया ठिकाने से पकड़ा गया और 10 दिन कारावास में रहने के बाद 28 जुलाई को रात 4 बजे लॉकअप में ही उनकी संदेहास्पद स्थिति में मौत हो गई. हालांकि अधिकारियों के मुताबिक उनकी मृत्यु हार्ट अटैक से हुई थी. वहीं कानू सान्याल भी कुछ वक्त के बाद मुख्यधारा में लौट आए पर नक्सली आंदोलन चलता ही रहा. कानू सान्याल ने 2010 में फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली.
70 से 80 के दशक में बोलबाला
70 से 80 के दशक में नक्सलियों का एकतरफा बोलबाला रहा, नक्सलियों को इसी दौर में राष्ट्रीय पहचान मिली. समय के साथ-साथ नक्सलियों का प्रभाव भी कम होता चला गया. फिर वर्ष 2004 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का गठन छोटे नक्सल और उग्रवादी संगठनों के गठजोड़ से हुआ. यहां से माओवादियों का दोबारा से उदय होना शुरू हुआ.
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